Thursday 27 September 2018

मानख्या थारो लावो लीजे, मिळे नी बारम्बार


कई दिनों की किरचें इधर-उधर बिखरी पड़ी हैं। मैंने अपने कमरे के सारे दरवाजों को बंद कर दिया है। पूरा कमरा दिनभर दरवाज़े के छेदों से आती धूप धूम से भरा रहता है। खिड़की से चिड़ियों का आना-जाना होता है। बाकी सारे रास्ते इस तरह बंद है कि बाहर की दुनिया की कोई खबर अंदर नहीं सकती। बाहर उड़ते कौओं के पंजे पर लटकती तख्तियों पर नींद से भरा में बस कुछ हैशटेग लिखे देख पाया। सेक्शन 497, अयोध्या और आधार मिनटों तक बुझाबुझी करते रहे धूप धूम और किरचों के बीच। कई दिनों की किरचों को मैं यहाँ उड़ेलना चाहता था। पर मैं अब मिटा रहा हूं।

नोटिस बोर्ड जिस पर मैं मेल के प्रिंट चिपका देता हूं ताकि भूल ना जाऊं उस पर सुबह बच्चों ने आड़े-तिरछे अक्षरों में अपने बतरने से मेरा नाम लिख दिया था। जो मिट ही नहीं रहा था। अभी मैंने भीगा कपड़ा फेरकर मिटा दिया उसे। किरचों पर मैं सूखी उदासियाँ फेर रहा हूँ। अगर नाम ही मिट सकता है तो कुछ उजले दिनों की चुभती किरचें क्योंकर नहीं मिटेगी!

जाने क्यों बदलते दिनों के साथ इस बार मौसम का बदलना नहीं दिख रहा है। पिछले बरस तो इस वक्त दिनों के गालों पर खूब गुलाबीपन दिखता था। पक्की हुई बाजरी पर चिड़ियों के झुंड गाते रहते और बाजते रहते गोफण के फटीड़े। सांझ को रास्ते गठरियाँ लादे सिरों से भरे दिखते। इन दिनों बस नीली सांझ दिखती है। 

आज सांझ जाने क्यों मन हो रहा था तारे निहारने का पहाड़ी पर। या फिर लम्बे खुले रास्तों पर ड्राइव करने का। बहुत से दोस्त याद आए। मैंने एक दोस्त को फोन किया। मैंने कहा जाओ बंतळ करते हैं, उसने कहा व्यस्त हूँ। पिछले एक महीने से वो टाळ रहा है। नहीं तो मेरे जैसलमेर में पैर रखते हुए उसका फोन आता था आओ सुमेरसा बंतळ करते हैं। पीने के बाद हम दोनों दोस्तियों पर लम्बी-लम्बी बातें करते थे। पिछली दो-तीन मुलाकातों में वो अपना एक काम करवाने के लिए कह रहा था। मैंने कहा अपने बस की सिर्फ बंतळ है। उसके बाद से वो व्यस्त हो गया है।

मैं आँखें बंद करता हूँ तो जाने कौनसी दुनिया में पहुँच जाता हूँ। ऐसे लगता है कोठारिये से घी लेने को पड़वे में घुस रहा हूँ। खिड़की से आती धूप धूम के जादू में से एक बिल्ली का बच्चा नीचे उतर रहा है। मेरे हाथों में खूब सारे चीभड़िये हैं। बाजरे की रोटी और घी में धूपकारे प्याज खाने के बाद आळे में रखे टेप में से कैसेट निकाल कर वापिस घुमानी है।

आँखें खोलने पर आधा फिर से इस सूने रास्ते पर लौट आया हूँ। आधा वहीं हूँ। सिगरेट खत्म होकर बुझ चुकी है। ऐसे लग रहा है अभी भी कैसेट घुमा रहा हूँ और बज रहा है...
'बिच्छूड़े री झाड़ नी जाणे सर्पां सां अड़े
मानख्या थारो लावो लीजे, मिळे नी बारम्बार'

[Photo : Sumer Singh Rathore]