Monday 8 July 2019

चिट्ठियाँ ‘स्थगित आत्महत्याओं’ के नाम

हर बार हरा देते हैं मुझे बच्चे, बैचेनियाँ और बालकनी। बालकनी के ऊपर तिरती बूँदों की फिसलन काफी नहीं होती होगी क्या अंधेरी घाटियों में ले जाकर मिटा देने के लिए। फिसलन पर से पाँवों की पकड़ छूटने को होती है कि तभी आँखों के आगे बच्ची हँसने लगती है झूला झूलते हुए। आँखें, बातें और नाम घाटी के मुहाने से खींच ले आते हैं।
सीढ़ियाँ उतरते हुए अंधेरे रास्ते खोजने लगता हूं। ऑटो और गाड़ियों को घूरते हुए ठुड्डी चूमते बाल खींच ले जाते हैं। अंधेरी घाटियाँ और अंधेरे रास्ते दोनों ठुकरा चुके हैं। रास्ते में सोचता हूं कि कोई नीलगाय झपट जाये या फट जाए कोई बादल। जिन सीढ़ियों पर इंतज़ार करवाया उनपर बैठ-बैठे मौत पर हंसता हूं। जीतने की बाजी लगाकर हारने आया था मैं। घंटों आते-जाते चेहरों को देखता रहा इंतज़ार में कि कम से कम खुद नहीं तो जवाब ही आये। उम्मीद रेगिस्तान के छोर की तरह थी। घंटों भीगता रहा कि भीगना भी होना होता है।
दरवाजे से कोई पाँव बाहर निकलकर चिंगारी सुलगाते और मैं हाथों में धुआँ भर लेता। धुएँ के बीच से कांच के पार दिख रही थीं बैचेनियाँ, ठुड्डी चूमते बालों में फिरता हाथ और की-बोर्ड का माथा सहलाती ऊंगलियाँ। काश कि मैं बिल्ली का बच्चा होता तो हारने का दुख नहीं होता। मखमल से रोयों पर फिरती रहती सिहराती ऊंगलियाँ। पेड़ के तने और झाड़ी के भीगे पत्तों के बीच काँच की खिड़की जैसे कोई फ्रेम हो और उसमें गढ़ दी गई हो जीवन्त तस्वीर। आसमानी कपड़ों पर रोशनी ऐसे की आँखें झपकना भूल जाएँ।
मैं आया हारने था पर मैं जीतने लगा था। इतना कोई कैसे निष्ठूर होता होगा। वो भी खुद पर। बिजली कड़कती तो लाल दीवारें काम्प जाती। लाइब्रेरी की वो खिड़की सई पराँजपे की किसी फिल्म सी हो गई थी। मैं सोचूं कि बैचेनियाँ थमे और पाँव दरवाजे पर हों। कानों में ईयरफोन डालकर ऊंगलियां फिर बालों में उलझने लगती। उसकी बैचेनी मुझे हरा देती, क्योंकि मैं हंसने लगा था, इससे बड़ा दुख कोई होता नहीं होगा और मैं हँस रहा था।। मेरा दिमाग लौट आया था। मेरे आगे चेहरे घूमने लगे थे। पर उसकी अंगुलियाँ थमती ही नहीं थीं। बूंदों के गीतों पर शरीर थिरकने लगा। मुझे लगा अब मैं खून थूकूंगा खुश होकर और जीत जाऊंगा। और खून थूकने से पहले ही उसकी बैचेनियाँ थम गई। मैं हारने को था। पर वो थकी ही नहीं। वो बातें करने लगी। खिड़की से उसके आड़े कोई दाँवपेंच समझाता सा बैठा और वो दिखनी बंद हो गई। शायद अंगुलियों की थकावट पर बातें हो रही थीं। हाथ हिलते थे। दाँत दिखते काँच के पार मोती से। लैपटॉप बंद हुआ तो मैं बैचेन था कि अब हार जाऊंगा। पर आना नहीं हुआ बस जगह बदल गई थी। बूँदें और बिजली मेरे पाले के साथी हुए जा रहे। थिरकन थी कि बढ़ती जाती। मुँह, हाथों और पाँवों पर कीट-पतंगे चित्र बनाने लगे। गार्ड्स की बीड़ियाँ जलती थीं और कुत्तों की चुपी खलती। जैसे सब पाले में गए थे मेरे। असंदिग्ध होकर भी संदिग्ध समझा गया हर बार। इस बार संदिग्ध होते हुए भी कोई नहीं टोकता। पड़े-पड़े उसे देखते पाँच घंटे हो गए।
बदली हुई जगह ऐसी थी कि आँखें उसे देखने के लिए छोटी-बड़ी होने लगी। बड़ी होती तो पत्तों पर से झरती बूँदें दिखतीं और छोटी होती तो दिखते लेपटॉप से ढ़की ठुड्डी, छोटे-छोटे बाल, गंभीर होता चेहरा, मोती से चमकते दाँत, आसमानी कपड़े, गुलाबी बोतल और चमकती चांदी सा लैपटॉप। कितनी मेहनत करती है। जाने क्या बनाने कि बैचेनी है। मैंने तो वापस भी बाय बोल दिया था। जबकि मैं कभी बोलना नहीं चाहता था ये। बारिश बढ़ गई थी। कपड़े बादल हो गए थे। फोन जीत चुका था। कई बार उसके फोन तक जा-जाकर लौट आने के बाद। मैं देवताओं को नहीं मानता था। किसी ने कहा था कि एनर्जी हुआ करती है कोई। किसी ने ये भी कहा था वाइब्स होती है। मुझे भी लगा तो था। किन्हीं मंदिरों में दम घुटता था और किन्हीं में जाकर लौट आती थी सांस। अगर होती है कोई एनर्जी या वाइब्स तो वो क्यों नहीं देखती मेरी तरफ? बदली हुई जगह से वो देखती तो ऐसे लगता कि उसकी आँखें मेरी आँखों में पत्तों के बीच से निकलकर मिली जा रही हों। पर सब तो झूठ था सच थे तो सिर्फ टूटे हुए सपने। अब मैं जीत रहा था। ये जीत ना तो अँधेरी घाटियों में जाने जैसी थी। ना ही अँधेरे रास्तों में खो जाने जैसी। ये जीत थी आँखों देखी के उस अनुभव जैसी "कुछ अनुभव अभी भी बाकी हैं। जो कि सिर्फ सपनों में भोगे थे। जैसे कि ये सपना जो बार-बार मुझे आता था। कि मैं हवा में तैर रहा हूं। नहीं उड़ रहा हूं। पंछी के जैसे।" मैं उड़ने लगा था। थिरकन बदल कर कम्पन हो गई थी। हाथ-पाँव सूजकर हल्के हो गए थे। वो मुझे हराने को बाहर निकलकर मेरे पाले में नहीं आई। आठ घंटे बीत गए लाइब्रेरी को तकते।
पर टूटे सपनों की तरह ही उसके आने पर भी मैं हार रहा था। उसको देखने भर से मैं बचा रह गया था। मैं हार गया था। कुत्तों ने चुप्पी छोड़कर भोंकना शुरू कर दिया था, गार्ड्स ने बीड़ियाँ फेंक दी थीं। हवाई जहाजों की आवाज़ कानों में घुलने लगी थी। हवाई जहाज बादलों में खो जाते थे। पर उनमे आत्मा नहीं थी। नहीं तो लौटकर नहीं आते। सोचता हूं कि मेरी आत्मा भी किसी हवाई जहाज के साथ उड़कर बादलों में घुम हो जाती तो कुछ अनुभव जो बाकी थे पूरे हो जाते। मैं हारकर लौट रहा हूं। वो ही मुझे हर बार बचा लेते हैं, मेरी डोर सुलझा देते हैं जिनके लिए उलझकर घाटियों में गुम होने को चलता हूं। वो दोस्तों के साथ उठकर जाने कहां गायब हो गई। मोर बोलने लगे मैं गीले रास्तों पर पाँवों में भार उठाए फिर वहीं लौट रहा हूं जहां से सब शुरू हुआ था।
ना कोई नीलगाय निकलती है जंगल से ना कोई बादल फटता है। सारे बादल खाली हो चुके हैं। पाला बदलकर भाग गए हैं। जीतता तो मैं बादलों में होता। चलते-चलते काम्पता शरीर मुँह से खून फिंकवाता है। मैं सोचता हूं कि दीया जल गया पर ये दीया बुझ गया था। वो मौत का खून नहीं फिर से उन्हीं गलियों में लौटने को नया होने निकला खून था। पुराना खून सड़क पर मटमैले पानी में घुल गया। इसी गड्ढे के पास से होकर वो मुड़ेगी पर तब तक खून सूख चुका होगा। टिटहरी ढाबे की छत पर गाती हुई आसमान के रंग में घुलने लगती है। मुझे उसके आसमानी कपड़े याद आते हैं जो रातभर निहारता रहा भीगते हुए मैं। सड़क किनारे की लम्बी घास के बीच बाजरे का एक अकेला सिट्टा अकड़कर खड़ा है उसे देख पँछी मुस्कराते हैं। शायद मेरी तरह हारा हुआ कोई बीज इस मिट्टी में आकर मिल गया था। मैं जिंदा लौट आया हूं। खुद को हराकर।




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