Wednesday 22 March 2017

आती भी कहाँ है अब नींद

 रेडियो जाने के दिनों की वो रातें थीं। छत पर आसमान होता था और हल्की सी राली और पतला पथरना। तकिये के एक कोने पर रेडियो गीत गाता था। फोन होता नहीं था तो देखने को थे तारे और रात में खुद को छिपाता बरगद। दस बजते-बजते रेडियो पे कुछ भी बचता नहीं था बजने को। ये वक्त होता था रात के अंतिम प्रसारण के खत्म होने से एक घंटा पहले का। खत्म हो रहा होता था गोरबंद, धीमे होते ढोलक और खड़ताल की आवाज़ के साथ। रेडियो बंद होता था शुरू हो जाते बरगद के पत्ते। दिन भर धूल से टकराती थकी हवा सहला रही होती पत्तों की नसों को। पानी की टंकी के पास बिखरे पानी में छोटे जिनावर गा रहे होते, जैसे वो जानते हों कि अब हो गया है वक्त मेरे सोने का। और ग्वाला भी जानता कि मैं क्या सुनकर सोऊंगा चैन से। इसीलिए उसने बांध दी थी बकरियों के गले में घंटियाँ। और रात में जब भी खुलती नींद ऊंघती बकरियों के गले में बज रही होती घंटियाँ हल्के-हल्के।और फिर किन्ही शामों में आ गया फोन। इन दिनों जितना बुरा नहीं था वो। बड़ा काम आता था उस वक्त जब रेडियो के पास कुछ भी नहीं बचता बजने को। मैं दो-तीन पसंदीदा ब्लॉगों को पढ़ने के बाद खोल लेता कॉफी हाउस। और लगता जैसे कोई हवा का झोंका बरगद के पत्तों से निकलकर छू गया हो। मुझे नहीं पता था कि मैं जिनकी कहानियाँ सुन रहा था इस पते पर लोग पागलों की तरह दीवाने होते हैं उनके, जैसे मैं हो गया था उस सुनाने वाली आवाज़ का। यहीं सुनी थी मैंने कुर्रतुन एन हैदर की कहानी 'फोटोग्राफर', अमृता प्रीतम की कहानी 'एक जीवी, एक रत्‍नी, एक सपना', गैब्रिेएल गार्सिया मार्खेज़ की कहानी 'गाँव में कुछ बुरा होने वाला है' ऐसी और भी कई कहानियाँ। इंतज़ार रहता था रात का। ये आवाज़ लोरी की तरह हो हई थी। बिना सुने नींद ही नहीं आती थी। वैसे ही जैसे इन दिनों से कुछ वक्त पहले तक माँ की बाजू पर सिर रखे बिना सो नहीं पाता था। गर्मियों की रातों में दिन भर की तपन को रेत जब छिपा लेती और हवा गर्मी को जाने कौन से कोने में छुपा आती, मैं कोई कहानी प्ले कर देता और एक आवाज़ आती 'कहानियों के वाचन का ब्लॉग, कॉफी हाउस। यू. आर. एल. कथा डेस पाठ डॉट ब्लॉगस्पोट डॉट इन।' ऐसे लगता जैसे किसी ने बालों में हाथ फिरा दिया हो। कहानियाँ लगाकर सो जाता और यूनुस खान की आवाज़ ऐसे लगती जैसे कोई लोरी गा रहा हो। रोज़ रात को कहानियाँ सुनता और लगता कि ये सिर्फ मेरे लिए ही बोली जाती हैं। क्यों कि कहीं पर मैं नहीं देखता था इन मिश्री जैसी कहानियों का ज़िक्र। मैं कभी शेयर नहीं करता था, किसी को बताता भी नहीं था इस ब्लॉग के बारे में। ऐसे लगता कि ये प्यारी आवाज़ और इन कहानियों पर सिर्फ मेरा ही हक़ हैं। इन्हें किसी और को नहीं पढ़ने दूंगा। और फिर पता नहीं कैसे वो सारे ब्लॉग, वो सारी कहानियाँ, वो सुकून सब छूट सा गया। ऐसे ही कभी सोचा करता था कि माँ से दूर होऊंगा तो उसकी बांह के बिना नींद कैसे आएगी। आती भी कहाँ है अब नींद। कल कविताओं मैं वो आवाज़ फिर से सुनी तो कलाई पर रोओं को नाचते देखा। ऐसे लगा कविताओं को निकालकर रख लूं जेब में और सुनाऊं हर सुकून को।

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