Saturday 18 April 2020

मौन टंगा रह जाता है फिर किसी आसमान की ओर चढ़ती दीवार पर

कोईये में घूमते थीगड़े
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1.
अओ मैं क्या देखता हूँ एक ऊंटों का बग भागता आ रहा है तबड़-तबड़क। नहीं इधर तो सड़कें हैं, ऊंचे पुल है ये ऊंटों का टोला नहीं। अओ ये तो बिल्डिंग के दाहिने से मेट्रो भागी आ रही है टांगो से दौड़ती हुई। मुँह पूरा लाल सना हुआ। कब से भागी आती दिखती है और मैं डर के खड़ा हूँ मुझ तक पहुँच ही नहीं रही है।

इतनें में मैं क्या देखता हूँ कि हवा में ही दरवाज़े खुल गए हैं और लोग हवा में ही उतरकर चल रहे हैं एकदम नंग-धड़ंग सब। जोर-जोर से चिल्ला रहे हैं सब बादलों को भींच-भींचकर। इतने में क्या देखता हूँ कि वो लोग बकरियों में बदल गए हैं। बकरियाँ भाग रही हैं हवा में पीछे-पीछे बकरे बोबाट करते हुए।

और इतने में क्या देखता हूँ कि बारिश शुरू हो गई है। सब गायब। पूरे शहर में एकदम गुलाबी उजाला फैल गया है। छत्तों पर नंग-धड़ंग आदमी और लुगाइयाँ। एक दूसरे को अजीब तरीके से पकड़ते हुए, नाचते हुए। एक दूसरे के भिन्न-भिन्न अंगों को पकड़कर खींचते हुए।

इतने में मैं क्या देखता हूँ अँधेरा हो गया है और बच्चे रो रहे हैं जोर-जोर से चारों तरफ़। आसमान से लगातार कोई बिस्किट फेंक रहा और रोना शोर में बदल गया है। बिजली चमक रही है। नहीं फ्लेश चमक रहे हैं। ज्यों-ज्यों रोटियाँ बच्चों के हाथों में गिरती है बिजली चमककर बुझ जाती है। इतने में मैं क्या देखता हूँ आसमान धीरे-धीरे नीचे आ रहा है। अओ ये तो जम का दूत है। धरती हिल रही है। आसमान के मुँह से खून टपक रहा है। नहीं आसमान नहीं जम के दूत के मुँह से। धड़ाम। इतने में मैं क्या देखता हूँ चार्जर प्लग पॉइंट से निकलकर मेरे मुँह पर घिर गया है। धत्त तेरी की। अओ अब लग रहा है मादळिया फुल फ्लेज्ड गिसक चुका है।

2.
एक साथ कितनी तरफ़ से कोई घिर सकता है, वे तमाम रेत में डूब चुके मोर्चे कहीं गिनतियों में नहीं थे। दिखता है बस आंधियों के थम जाने के बाद असलहे से दबा अधमरा शरीर। झरींटों से ज़ार कलाईयाँ। डूबती साँसों से निथरी रेत की जगह उग आया कोई फूल रेगिस्तानी थोर की छाँव में। किसी दिन भटकता कोई चरवाहा पहुँचता है वहाँ और किसी टांग टूटी भेड़ की तरह लादकर चल देता है पगडंडियों पर इस उम्मीद में कि हर बार की तरह इस बार भी लौट आयेगी अधमरे शरीर की साँसें।

3.
उनके प्रपंच धीरे-धीरे समझ आते थे। उनकी दुश्चेष्टाएँ भी धीरे-धीरे दिखने लगती थीं। वे मारे हुए थे समय के। उनकी आत्माओं पर छाले थे अदीठपने के। दूर से धीरे-धीरे यह भी दिखता कि अपनी कुर्सियों पर जमे हुए वे कितने डाँवाडोल हैं। उनका भड़ुआपन धीरे-धीरे उनकी सारी अच्छाइयों खाता जाता है। और उनकी कुर्सियाँ लटकने लगती हैं दीमक के चौखट खा जाने के बाद लटकते दरवाज़ों की तरह।

4.
हौले से हूक उठती है कि वैसे नहीं रह गया है अब वक़्त। होने को तो हैं कईं दिलासे। पर हूक फुसफुसाती है कि ये गीत फुसलाने के हैं। एक अजीब सा डर तारी होने लगा है। यह मिट जाने का डर नहीं है, ना ही कहीं दूर होने का। इस डर का खोजने पर कोई सिरा नहीं मिलता पर हर आवाज़ में उसका एक सिरा जरूर सुनाई पड़ता है। कौन जानता है कि होने वाला क्या है। आसमान धीरे-धीरे कितना साफ़ होने लगा। इमारते कितना दूर तक चिटी दिखने लगी हैं। पता नहीं क्यों हैं यह सब। क्या है यह सब।
5.
एक और दिन बीतता है। मौन टंगा रह जाता है फिर किसी आसमान की ओर चढ़ती दीवार पर। सबकुछ के बीत जाने के बाद जब एकांत के किसी क्षण में दीवार फांदकर मौन उतर आता है आस-पास तब गिनतियों में क्या बचता है, ग्लानियाँ। इन ग्लानियों को छिपाने के लिए एक और दीवार चिनी जायेगी जिसमें होंगे स्पेस के बहाने। स्पेस जिसे होना है लेकिन जो कभी था ही नहीं। जिसकी रिक्तता की शिकायतों ने दूरियों के माले चिनने दिए। अब चारों तरफ़ इतनी दीवारें और इतने माले हैं कि किसी भाव का अंदर दाखिल होना तो क्या दीखना भी मुश्किल मालूम पड़ता है। ऐसा न होता तो क्या यूँ होता? क्या कुछ भी फ़र्क़ नहीं पड़ता? बताना कभी जब बता सकने कि स्थितियाँ बनें। मैं इन दीवारों और मालों में इतना दब गया हूँ कि अपनी सांसों की आवाज़ साफ़-साफ़ सुन रहा हूँ। बताओ इन दीवारों में रास्ते किन हाथों से बनेंगे? सबकुछ के खो जाने, दब जाने के बाद भी दीवार के किसी छेद से आती रोशनी की तरह एक बात बची रह जाती है वह है उन हाथों के बचे रहने की प्रार्थना। उन हाथों के चलते रहने की प्रार्थना।


Sumer Singh Rathore










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