Saturday, 20 February 2021

कि सब छूट जाना होते हुए भी



 एक दुनिया है जो छूट गई है

एक दुनिया है जो पास है।


एक शहर है

खुद को नहीं है जिसका ठिकाना

जो रंगों से भरा है जीवन के

लेकिन 

उतना ही बेरंग।


रेत है

रेत पर चलते जीव है

पैरों के निशान है 

दुनिया के लिए

कलाकृतियों से।


आसमान है

आसमान की दुनिया है

अथाह है एक नीलापन।


यह शहर 

या कहें कि दुनिया 

इसके पास तमाम चीज़ें हैं

राजशाही, राजनीति, साहित्य, कला

संस्कृति, संगीत, जीवन और जिजीविषा 

जो नहीं है वो है,

वही जिसे आप चाहकर भी नहीं चाहते!


सोचना ये तमाम

सब्जेक्टिव है या ऑब्जेक्टिव 

कि एक लाश पड़ी है

फिसली हुई लाश

जो फिसल कर गिर जाती है

फ़र्क़ पड़ता नहीं है किसी को।


एक दिन पता चलता है

आप थे जो थे

लेकिन 

अब आप नहीं है

रोना है, विलाप है

याद है

कहें कि

मेमोरीज़।


फिर लौट आए दूर

जो था

उसके पास

एक दुनिया

जिसका होना रोमांटिसिज़्म

कि सब सुंदर

जो दीखता है

रेत हो जाती है हरियाली

रेगिस्तान हो जाता है पानी

कि महल ही महल

जो नहीं दीखता 

परमाणु से फूट पड़ी धरती

सांस को तरसता गला।


संदर्भ क्या तमाम बातों का?

संदर्भ 

संदर्भ 

सोचो क्या संदर्भ,

कि 

सब छूट जाना होते हुए भी

न होना

होते हुए भी 

घटना, न घटने को।



Saturday, 18 April 2020

मौन टंगा रह जाता है फिर किसी आसमान की ओर चढ़ती दीवार पर

कोईये में घूमते थीगड़े
______

1.
अओ मैं क्या देखता हूँ एक ऊंटों का बग भागता आ रहा है तबड़-तबड़क। नहीं इधर तो सड़कें हैं, ऊंचे पुल है ये ऊंटों का टोला नहीं। अओ ये तो बिल्डिंग के दाहिने से मेट्रो भागी आ रही है टांगो से दौड़ती हुई। मुँह पूरा लाल सना हुआ। कब से भागी आती दिखती है और मैं डर के खड़ा हूँ मुझ तक पहुँच ही नहीं रही है।

इतनें में मैं क्या देखता हूँ कि हवा में ही दरवाज़े खुल गए हैं और लोग हवा में ही उतरकर चल रहे हैं एकदम नंग-धड़ंग सब। जोर-जोर से चिल्ला रहे हैं सब बादलों को भींच-भींचकर। इतने में क्या देखता हूँ कि वो लोग बकरियों में बदल गए हैं। बकरियाँ भाग रही हैं हवा में पीछे-पीछे बकरे बोबाट करते हुए।

और इतने में क्या देखता हूँ कि बारिश शुरू हो गई है। सब गायब। पूरे शहर में एकदम गुलाबी उजाला फैल गया है। छत्तों पर नंग-धड़ंग आदमी और लुगाइयाँ। एक दूसरे को अजीब तरीके से पकड़ते हुए, नाचते हुए। एक दूसरे के भिन्न-भिन्न अंगों को पकड़कर खींचते हुए।

इतने में मैं क्या देखता हूँ अँधेरा हो गया है और बच्चे रो रहे हैं जोर-जोर से चारों तरफ़। आसमान से लगातार कोई बिस्किट फेंक रहा और रोना शोर में बदल गया है। बिजली चमक रही है। नहीं फ्लेश चमक रहे हैं। ज्यों-ज्यों रोटियाँ बच्चों के हाथों में गिरती है बिजली चमककर बुझ जाती है। इतने में मैं क्या देखता हूँ आसमान धीरे-धीरे नीचे आ रहा है। अओ ये तो जम का दूत है। धरती हिल रही है। आसमान के मुँह से खून टपक रहा है। नहीं आसमान नहीं जम के दूत के मुँह से। धड़ाम। इतने में मैं क्या देखता हूँ चार्जर प्लग पॉइंट से निकलकर मेरे मुँह पर घिर गया है। धत्त तेरी की। अओ अब लग रहा है मादळिया फुल फ्लेज्ड गिसक चुका है।

2.
एक साथ कितनी तरफ़ से कोई घिर सकता है, वे तमाम रेत में डूब चुके मोर्चे कहीं गिनतियों में नहीं थे। दिखता है बस आंधियों के थम जाने के बाद असलहे से दबा अधमरा शरीर। झरींटों से ज़ार कलाईयाँ। डूबती साँसों से निथरी रेत की जगह उग आया कोई फूल रेगिस्तानी थोर की छाँव में। किसी दिन भटकता कोई चरवाहा पहुँचता है वहाँ और किसी टांग टूटी भेड़ की तरह लादकर चल देता है पगडंडियों पर इस उम्मीद में कि हर बार की तरह इस बार भी लौट आयेगी अधमरे शरीर की साँसें।

3.
उनके प्रपंच धीरे-धीरे समझ आते थे। उनकी दुश्चेष्टाएँ भी धीरे-धीरे दिखने लगती थीं। वे मारे हुए थे समय के। उनकी आत्माओं पर छाले थे अदीठपने के। दूर से धीरे-धीरे यह भी दिखता कि अपनी कुर्सियों पर जमे हुए वे कितने डाँवाडोल हैं। उनका भड़ुआपन धीरे-धीरे उनकी सारी अच्छाइयों खाता जाता है। और उनकी कुर्सियाँ लटकने लगती हैं दीमक के चौखट खा जाने के बाद लटकते दरवाज़ों की तरह।

4.
हौले से हूक उठती है कि वैसे नहीं रह गया है अब वक़्त। होने को तो हैं कईं दिलासे। पर हूक फुसफुसाती है कि ये गीत फुसलाने के हैं। एक अजीब सा डर तारी होने लगा है। यह मिट जाने का डर नहीं है, ना ही कहीं दूर होने का। इस डर का खोजने पर कोई सिरा नहीं मिलता पर हर आवाज़ में उसका एक सिरा जरूर सुनाई पड़ता है। कौन जानता है कि होने वाला क्या है। आसमान धीरे-धीरे कितना साफ़ होने लगा। इमारते कितना दूर तक चिटी दिखने लगी हैं। पता नहीं क्यों हैं यह सब। क्या है यह सब।
5.
एक और दिन बीतता है। मौन टंगा रह जाता है फिर किसी आसमान की ओर चढ़ती दीवार पर। सबकुछ के बीत जाने के बाद जब एकांत के किसी क्षण में दीवार फांदकर मौन उतर आता है आस-पास तब गिनतियों में क्या बचता है, ग्लानियाँ। इन ग्लानियों को छिपाने के लिए एक और दीवार चिनी जायेगी जिसमें होंगे स्पेस के बहाने। स्पेस जिसे होना है लेकिन जो कभी था ही नहीं। जिसकी रिक्तता की शिकायतों ने दूरियों के माले चिनने दिए। अब चारों तरफ़ इतनी दीवारें और इतने माले हैं कि किसी भाव का अंदर दाखिल होना तो क्या दीखना भी मुश्किल मालूम पड़ता है। ऐसा न होता तो क्या यूँ होता? क्या कुछ भी फ़र्क़ नहीं पड़ता? बताना कभी जब बता सकने कि स्थितियाँ बनें। मैं इन दीवारों और मालों में इतना दब गया हूँ कि अपनी सांसों की आवाज़ साफ़-साफ़ सुन रहा हूँ। बताओ इन दीवारों में रास्ते किन हाथों से बनेंगे? सबकुछ के खो जाने, दब जाने के बाद भी दीवार के किसी छेद से आती रोशनी की तरह एक बात बची रह जाती है वह है उन हाथों के बचे रहने की प्रार्थना। उन हाथों के चलते रहने की प्रार्थना।


Sumer Singh Rathore










Monday, 16 December 2019

एक दिन आपका भी नम्बर आएगा!

मैं जश्ने रेख़्ता में था। शाम सात बजे के आसपास घर से फोन आया कि कहाँ हो दिल्ली में दंगे हो रहे हैं, तुम ठीक हो। फोन काटने के थोड़ी देर बाद आसपास के लोगों को घटना के बारे में फोन आने शुरू हो गए। बताया गया कि जामिया मिल्लिया इस्लामिया में छात्रों को पुलिस ने कैम्पस में घुसकर पीट दिया है। खबरों में था कि प्रोटेस्ट कर रहे लोगों ने बसें जला दी। हम वहाँ से जामिया के लिए निकले। महारानी बाग की तरफ जाम लगा था। ऑटो वाले ने लगभग दो किलोमीटर पहले उतार दिया कि आगे भयंकर जाम है मैं आगे नहीं चल सकता। हम उतरकर पैदल ही आगे बढ़ गए। दो बसें, एक कार जले हुए थे। एक बस में तोड़-फोड़ की हुई थी।

अभी इस जगह से जामिया का कैम्पस लगभग एक किलोमीटर से ज्यादा दूर था। चौराहे पर बैनर व जूत्ते बिखरे हुए थे चारों ओर। हम कैम्पस पहुँचे तो पूरी सड़क पुलिस वालों से भरी हुई थी। जामिया के आसपास हमेशा खुली रहने वाली सारी दुकाने इस वक़्त बंद थी। अंदर एक दम सन्नाटा पसरा था। कैम्पस में जगह-जगह काँच टूटे हुए बिखरे थे। वहाँ घूम रहे गार्ड्स ने कहा कि आप यहाँ से चले जाइये यहाँ पर कोई नहीं है अभी, हम घायल छात्रों को ढूंढ़कर अस्पताल पहुँचा रहे हैं। हम वहाँ से बाहर निकले तो बाहर सड़क के एक तरफ बहुत सारी गिरी हुई मोटर साइकिलों थीं जिनके काँच टूटे हुए थे। बाद में छात्रों ने बताया की उनकी गाड़ियों के काँच पुलिस ने यहाँ से गुजरते हुए तोड़ दिये।

वहाँ से हम लाइब्रेरी पहुँचे जहाँ परिजन व प्रोफेसर घायल छात्रों को ढूंढ रहे थे। कुछ छात्रों के बदहवास परिज़न इधर-उधर घूमते हुए बच्चों को ढूंढने के लिए मदद की गुहार लगा रहे थे। एक महिला लाइब्रेरी के बाहर अपने बच्चे का नाम पुकार रही थी। उसका कहना था कि अंतिम फोन आया तब उसने कहा कि पुलिस लाइब्रेरी के अंदर घुसकर मार रही है तथा वह आसपास किसी गड्ढे में छुपा हुआ है। एक प्रोफेसर ने बताया कि आज जो प्रोटेस्ट हुआ उसका जामिया से कोई लेना देना नहीं था। वह बाहर के लोगों का प्रोटेस्ट था। पुलिस उस प्रोटेस्ट को तीतर-बीतर करते हुए कैम्पस में घुस आई और लाइब्रेरी में पढ़ते हुए लोगों को बेरहमी से पीटा गया।

वहाँ से हम हॉस्टल की तरफ़ गए तो छात्र डरे हुए थे। कुछ छात्र अपना बैग लेकर बाहर की ओर जा रहे थे। हमारे पूछने पर उन्होंने कहा कि हमें बताया गया है यहाँ माहौल खराब होने वाला है हम अपने दोस्तों के रूम पर जा रहे है। गेट के ही बाहर चीफ प्रॉक्टर मिले। उनका कहना था कि पुलिस विश्वविद्यालय प्रशासन की बिना अनुमति के कैम्पस में घुसी। लाइब्रेरी में पढ़ रहे छात्र-छात्राओं को मारा, छात्र जब खुद को बचाने के लिए मस्ज़िद में जाकर छिपे तो वहाँ घुसकर मारा, गार्डस व स्टाफ मेम्बर्स को मारा। कैम्पस के अंदर से कोई भी पत्थरबाज़ी नहीं हुई। उन्होंने कहा कि हम पुलिस के ख़िलाफ़ एफआईआर करवाएंगे।

सामने से सड़क पर पुलिस का बहुत बड़ा जत्था आ रहा था। हम उसे रिकॉर्ड करने लगे अचानक कुछ पुलिसवाले आए और मेरे हाथ से फोन छीन लिया। हाथापाई करने लगे। मैंने कहा पत्रकार हूँ तो वो फोन लेकर चलने लगे। थोड़ी देर बाद एक दूसरे पुलिस वाले ने अपने साथियों से फोन लौटाने व हमें छोड़ने को कहा। मैंने फोन देखा तो वीडियो डिलीट कर दिया गया था उसमें से। आपको फिर से याद दिला दूं कि यह सब देश की राजधानी दिल्ली की एक सेंट्रल यूनिवर्सिटी के आगे हो रहा है।

वहाँ मौजूद छात्र गुस्से में थे। डरे हुए भी थे। उनका कहना था कि बसें पुलिसवालों ने खुद जलाई हैं। वहीं कुछ लोग कह रहे थे कि बसें बाहर के जो लोग प्रदर्शन कर रहे थे उन्होंने जलाई। उनका कहना था कि कैम्पस में जाकर देखिए कहाँ पत्थर हैं। छात्र लाइब्रेरी में थे, डिपार्टमेंट्स में थे, हॉस्टलस में थे जहाँ पुलिस ने घुसकर उन्हें पीटा। सौ से ज़्यादा छात्र घायल हैं। 50 से ज़्यादा छात्रों को पुलिस द्वारा पकड़ा गया है।

वहाँ से पता चला कि घायल छात्रों को होली फैमिली अस्पताल ले गए हैं। बारह बजे हम वहाँ पहुँचे तो अस्पताल के गेट बंद कर दिए गए थे। किसी को भी अंदर नहीं जाने दिया जा रहा था। अंदर और बाहर पुलिस की भीड़ थी। लगातार पुलिस की गाड़ियाँ अंदर जा रही थी। बाहर परिजन गिड़गिड़ा रहे थे कि उनके बच्चे गायब हैं उन्हें अंदर जाकर देखने दिया जाए। गार्डस कह रहे थे कि कोई अंदर नहीं जा सकता। और यहाँ कोई बच्चे नहीं हैं जामिया के।

पता चला कि कुछ बच्चे न्यू फ़्रेंड्स कॉलेनी व कालकाजी थाने में हैं। रात के एक बज रहे हैं। हम न्यू फ़्रेंड्स कॉलोनी थाने पहुँचे। थाने का गेट बंद था। बाहर कुछ पत्रकार, एक्टिविस्ट, वकील व छात्रों के परिजन खड़े थे। किसी को भी नहीं पता है कि घायल व पुलिस द्वारा उठाये गए छात्र कहाँ पर है। बताया गया कि यहाँ जो छात्र थे उन्हें एम्स ट्रोमा सेंटर ले जाया गया है। वहाँ से लोग कालकाजी थाने व एम्स की तरफ निकल गए। यहाँ हर्ष मंदर, योगेन्द्र यादव, उमर ख़ालिद तथा कई अन्य लोग थे जिनको देखकर पुलिस का डर थोड़ा कम हुआ।

कालकाजी थाने के बाहर भी लोग इकट्ठा थे। छात्रों के परिजन गेट खुलवाने को लेकर पुलिस से उलझ रहे थे। उनका कहना था कि पुलिस घायल छात्रों को अस्पताल ले जाने के बजाय थाने में रखे हुए है। परेशान परिजनों को वहाँ मौजूद वकील व एक्टिविस्ट दिलासा दे रहे थे। छात्रों को थाने से निकालकर हॉस्पीटल ले जाने के लिए कोशिश कर रहे थे।

तीन बजे हम एम्स के ट्रोमा सेंटर पहुँचे। मरिजों के परिजन इधर-उधर सोए हुए दिख रह थे। गार्डस ने अंदर जाने से रोक दिया और कहा कि सामने खड़े पुलिस वालों से पूछो। पुलिस वालों ने भी मना कर दिया । वहाँ खड़े तीन पत्रकार अंदर जाकर छात्रों का हाल जानने की कोशिश कर रहे थे। कुछ परिजन भी पहुँचे। बताया गया कि पुलिस छात्रों से कहलवाना चाहती है कि उन्हें जामिया के ही लोगों ने मारा है। पुलिस ने उन्हें बचाया है। एक छात्र के पिता ने बताया कि लाइब्रेरी में पढ़ रहे उनके बेटे को मारा गया। उसकी एक आँख डेमेज हो गई है। उँगली फ़्रैक्चर है। बताते हुए वो फफककर रोने लगे। कहा कि बेटे के किसी साथी ने फोन करके उनको सूचना दी। यहाँ अंदर सोलह छात्र एडमिट बताए जा रहे हैं।

चार बजे मैं अपने घर पहुँचा। छह बज गए हैं लेकिन सो नहीं पा रहा। चेहरे के सामने फफककर रोते उस छात्र के पिता का चेहरा घूम रहा है। सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाना, बसों को जलाना ग़लत हो सकता है। लेकिन बेक़सूर लाइब्रेरी में पढ़ते हुए छात्रों पर किये गए हमले के भी अगर आप पक्ष में खड़े हैं तो आप ग़लत हैं। ये आपके ही बच्चों पर उस सरकार का हमला है जिसे आपने चुना है। जिसे आप अपनी जेब से पैसा देते हैं।पुलिस हमारी सुरक्षा के लिए होती है या डराने के लिए? शायद डराने के लिए ही होती है इसलिए बचपन में हर बात में पुलिस का डर दिखाकर बात मनवाई जाती थी। एक कानून जो देश को धार्मिक तौर पर बांटने वाला है, जो धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ है उसका विरोध कर रहे छात्रों को दबाने के लिए जामिया व एएमयू में पुलिस ने जो बर्बरता दिखाई है वह बहुत ही भयावह है। एक दिन आपका भी नम्बर आएगा।


Thursday, 14 November 2019

दोहराते हुए कि बाकी सब ठीक है।

सूरज डूबते ही रास्तों के किनारे बिखरे पड़े इन फूलों का महकना शुरू हो जाता है। ये धुंधले होते दिनों की महक है। मैं इस महक को महसूस करने की कोशिश करना चाह रहा हूँ पर नहीं कर पा रहा हूँ। धीरे-धीरे ऐसे लग रहा है जैसे कुछ भी महसूस होना बंद हो गया है। आए हुए सारे फोन आए हुए रह गए हैं। जो एकाध वापिस लौटे वो बुरी खबरों से भरे हुए हैं। खबरें फसलों के बर्बाद हो जाने की, खबरें आत्महत्याओं की, खबरें शादियों के लिए खुश होते लोगों की। खबरें उन लोगों की भी हैं जो होड़ में बने रहने के लिए कुछ भी किए जा रहे हैं। अनैतिक जीवन जीए जा रहे हैं। क्या सच में वह जीवन अनैतिक है।  जिसे हमनें अपने लिए अनैतिक करार देकर नकार दिया असल में इस दुनिया में नैतिक जीवन वही है। वह कितनी खराब बात थी जो पिछली किसी एक शाम कही गई। आपके बारे में किसी से कोई कुछ भी बात कह सकता है। वो बात जो आपने कभी की/कही नहीं होगी। और आप कुछ कर भी नहीं सकते इस बारे में। सिवाय की किसी दिन घूमती-फिरती वही कोई बात आपके कानों में पड़ेगी और आप चौंककर पूछेंगे, हैं! ये कब हुआ। सब चीज़ों को याद करने के बाद महसूस करने की तमाम जाया कोशिशों के बाद रेलिंग पर हाथ टिकाकर धुंध में छिपी इमारतों पर उड़ते हुए कबूतरों को देख रहा हूँ। शहर से तमाम शिकायतों को सोच रहा हूँ। यह सब सोचते हुए चाहता हूँ कि नीचे उतरकर कहीं हो आऊं। पर जगहें जैसे रोक रही हैं। जिन जगहों पर एक उम्र बीती हो वो जगहें खुद से आपके लिए रास्ते बंद कर देती हैं, क्या यह संभव होता होगा। हम सब कहीं भी होकर कहीं ना कहीं से बहुत दूर हैं। इतना दूर की वहाँ पहुँच पाना संभव ही नहीं है। हम जितना ऊपर जा रहे हैं उतना ही पीछे हमसे हमें सुनने वाले छूटते जा रहे हैं। जो कहा जाना था उसे उसे घोटकर पी लिया गया होगा अपने ही अंदर। इसे पीने से किसी का भी गला नीला भी नहीं पड़ता होगा ना। कोई पूछे तो कह देना बाकी सब ठीक है। जीवन कितना सुँदर है। एक-एक कर तमाम शिकायतें गिनवा देना। पीछे किसी कोने से आपका अपना जीवन दूर होता हुआ हँस देगा आपपर। दोहराते हुए कि बाकी सब ठीक है।

Monday, 8 July 2019

चिट्ठियाँ ‘स्थगित आत्महत्याओं’ के नाम

हर बार हरा देते हैं मुझे बच्चे, बैचेनियाँ और बालकनी। बालकनी के ऊपर तिरती बूँदों की फिसलन काफी नहीं होती होगी क्या अंधेरी घाटियों में ले जाकर मिटा देने के लिए। फिसलन पर से पाँवों की पकड़ छूटने को होती है कि तभी आँखों के आगे बच्ची हँसने लगती है झूला झूलते हुए। आँखें, बातें और नाम घाटी के मुहाने से खींच ले आते हैं।
सीढ़ियाँ उतरते हुए अंधेरे रास्ते खोजने लगता हूं। ऑटो और गाड़ियों को घूरते हुए ठुड्डी चूमते बाल खींच ले जाते हैं। अंधेरी घाटियाँ और अंधेरे रास्ते दोनों ठुकरा चुके हैं। रास्ते में सोचता हूं कि कोई नीलगाय झपट जाये या फट जाए कोई बादल। जिन सीढ़ियों पर इंतज़ार करवाया उनपर बैठ-बैठे मौत पर हंसता हूं। जीतने की बाजी लगाकर हारने आया था मैं। घंटों आते-जाते चेहरों को देखता रहा इंतज़ार में कि कम से कम खुद नहीं तो जवाब ही आये। उम्मीद रेगिस्तान के छोर की तरह थी। घंटों भीगता रहा कि भीगना भी होना होता है।
दरवाजे से कोई पाँव बाहर निकलकर चिंगारी सुलगाते और मैं हाथों में धुआँ भर लेता। धुएँ के बीच से कांच के पार दिख रही थीं बैचेनियाँ, ठुड्डी चूमते बालों में फिरता हाथ और की-बोर्ड का माथा सहलाती ऊंगलियाँ। काश कि मैं बिल्ली का बच्चा होता तो हारने का दुख नहीं होता। मखमल से रोयों पर फिरती रहती सिहराती ऊंगलियाँ। पेड़ के तने और झाड़ी के भीगे पत्तों के बीच काँच की खिड़की जैसे कोई फ्रेम हो और उसमें गढ़ दी गई हो जीवन्त तस्वीर। आसमानी कपड़ों पर रोशनी ऐसे की आँखें झपकना भूल जाएँ।
मैं आया हारने था पर मैं जीतने लगा था। इतना कोई कैसे निष्ठूर होता होगा। वो भी खुद पर। बिजली कड़कती तो लाल दीवारें काम्प जाती। लाइब्रेरी की वो खिड़की सई पराँजपे की किसी फिल्म सी हो गई थी। मैं सोचूं कि बैचेनियाँ थमे और पाँव दरवाजे पर हों। कानों में ईयरफोन डालकर ऊंगलियां फिर बालों में उलझने लगती। उसकी बैचेनी मुझे हरा देती, क्योंकि मैं हंसने लगा था, इससे बड़ा दुख कोई होता नहीं होगा और मैं हँस रहा था।। मेरा दिमाग लौट आया था। मेरे आगे चेहरे घूमने लगे थे। पर उसकी अंगुलियाँ थमती ही नहीं थीं। बूंदों के गीतों पर शरीर थिरकने लगा। मुझे लगा अब मैं खून थूकूंगा खुश होकर और जीत जाऊंगा। और खून थूकने से पहले ही उसकी बैचेनियाँ थम गई। मैं हारने को था। पर वो थकी ही नहीं। वो बातें करने लगी। खिड़की से उसके आड़े कोई दाँवपेंच समझाता सा बैठा और वो दिखनी बंद हो गई। शायद अंगुलियों की थकावट पर बातें हो रही थीं। हाथ हिलते थे। दाँत दिखते काँच के पार मोती से। लैपटॉप बंद हुआ तो मैं बैचेन था कि अब हार जाऊंगा। पर आना नहीं हुआ बस जगह बदल गई थी। बूँदें और बिजली मेरे पाले के साथी हुए जा रहे। थिरकन थी कि बढ़ती जाती। मुँह, हाथों और पाँवों पर कीट-पतंगे चित्र बनाने लगे। गार्ड्स की बीड़ियाँ जलती थीं और कुत्तों की चुपी खलती। जैसे सब पाले में गए थे मेरे। असंदिग्ध होकर भी संदिग्ध समझा गया हर बार। इस बार संदिग्ध होते हुए भी कोई नहीं टोकता। पड़े-पड़े उसे देखते पाँच घंटे हो गए।
बदली हुई जगह ऐसी थी कि आँखें उसे देखने के लिए छोटी-बड़ी होने लगी। बड़ी होती तो पत्तों पर से झरती बूँदें दिखतीं और छोटी होती तो दिखते लेपटॉप से ढ़की ठुड्डी, छोटे-छोटे बाल, गंभीर होता चेहरा, मोती से चमकते दाँत, आसमानी कपड़े, गुलाबी बोतल और चमकती चांदी सा लैपटॉप। कितनी मेहनत करती है। जाने क्या बनाने कि बैचेनी है। मैंने तो वापस भी बाय बोल दिया था। जबकि मैं कभी बोलना नहीं चाहता था ये। बारिश बढ़ गई थी। कपड़े बादल हो गए थे। फोन जीत चुका था। कई बार उसके फोन तक जा-जाकर लौट आने के बाद। मैं देवताओं को नहीं मानता था। किसी ने कहा था कि एनर्जी हुआ करती है कोई। किसी ने ये भी कहा था वाइब्स होती है। मुझे भी लगा तो था। किन्हीं मंदिरों में दम घुटता था और किन्हीं में जाकर लौट आती थी सांस। अगर होती है कोई एनर्जी या वाइब्स तो वो क्यों नहीं देखती मेरी तरफ? बदली हुई जगह से वो देखती तो ऐसे लगता कि उसकी आँखें मेरी आँखों में पत्तों के बीच से निकलकर मिली जा रही हों। पर सब तो झूठ था सच थे तो सिर्फ टूटे हुए सपने। अब मैं जीत रहा था। ये जीत ना तो अँधेरी घाटियों में जाने जैसी थी। ना ही अँधेरे रास्तों में खो जाने जैसी। ये जीत थी आँखों देखी के उस अनुभव जैसी "कुछ अनुभव अभी भी बाकी हैं। जो कि सिर्फ सपनों में भोगे थे। जैसे कि ये सपना जो बार-बार मुझे आता था। कि मैं हवा में तैर रहा हूं। नहीं उड़ रहा हूं। पंछी के जैसे।" मैं उड़ने लगा था। थिरकन बदल कर कम्पन हो गई थी। हाथ-पाँव सूजकर हल्के हो गए थे। वो मुझे हराने को बाहर निकलकर मेरे पाले में नहीं आई। आठ घंटे बीत गए लाइब्रेरी को तकते।
पर टूटे सपनों की तरह ही उसके आने पर भी मैं हार रहा था। उसको देखने भर से मैं बचा रह गया था। मैं हार गया था। कुत्तों ने चुप्पी छोड़कर भोंकना शुरू कर दिया था, गार्ड्स ने बीड़ियाँ फेंक दी थीं। हवाई जहाजों की आवाज़ कानों में घुलने लगी थी। हवाई जहाज बादलों में खो जाते थे। पर उनमे आत्मा नहीं थी। नहीं तो लौटकर नहीं आते। सोचता हूं कि मेरी आत्मा भी किसी हवाई जहाज के साथ उड़कर बादलों में घुम हो जाती तो कुछ अनुभव जो बाकी थे पूरे हो जाते। मैं हारकर लौट रहा हूं। वो ही मुझे हर बार बचा लेते हैं, मेरी डोर सुलझा देते हैं जिनके लिए उलझकर घाटियों में गुम होने को चलता हूं। वो दोस्तों के साथ उठकर जाने कहां गायब हो गई। मोर बोलने लगे मैं गीले रास्तों पर पाँवों में भार उठाए फिर वहीं लौट रहा हूं जहां से सब शुरू हुआ था।
ना कोई नीलगाय निकलती है जंगल से ना कोई बादल फटता है। सारे बादल खाली हो चुके हैं। पाला बदलकर भाग गए हैं। जीतता तो मैं बादलों में होता। चलते-चलते काम्पता शरीर मुँह से खून फिंकवाता है। मैं सोचता हूं कि दीया जल गया पर ये दीया बुझ गया था। वो मौत का खून नहीं फिर से उन्हीं गलियों में लौटने को नया होने निकला खून था। पुराना खून सड़क पर मटमैले पानी में घुल गया। इसी गड्ढे के पास से होकर वो मुड़ेगी पर तब तक खून सूख चुका होगा। टिटहरी ढाबे की छत पर गाती हुई आसमान के रंग में घुलने लगती है। मुझे उसके आसमानी कपड़े याद आते हैं जो रातभर निहारता रहा भीगते हुए मैं। सड़क किनारे की लम्बी घास के बीच बाजरे का एक अकेला सिट्टा अकड़कर खड़ा है उसे देख पँछी मुस्कराते हैं। शायद मेरी तरह हारा हुआ कोई बीज इस मिट्टी में आकर मिल गया था। मैं जिंदा लौट आया हूं। खुद को हराकर।




Thursday, 27 September 2018

मानख्या थारो लावो लीजे, मिळे नी बारम्बार


कई दिनों की किरचें इधर-उधर बिखरी पड़ी हैं। मैंने अपने कमरे के सारे दरवाजों को बंद कर दिया है। पूरा कमरा दिनभर दरवाज़े के छेदों से आती धूप धूम से भरा रहता है। खिड़की से चिड़ियों का आना-जाना होता है। बाकी सारे रास्ते इस तरह बंद है कि बाहर की दुनिया की कोई खबर अंदर नहीं सकती। बाहर उड़ते कौओं के पंजे पर लटकती तख्तियों पर नींद से भरा में बस कुछ हैशटेग लिखे देख पाया। सेक्शन 497, अयोध्या और आधार मिनटों तक बुझाबुझी करते रहे धूप धूम और किरचों के बीच। कई दिनों की किरचों को मैं यहाँ उड़ेलना चाहता था। पर मैं अब मिटा रहा हूं।

नोटिस बोर्ड जिस पर मैं मेल के प्रिंट चिपका देता हूं ताकि भूल ना जाऊं उस पर सुबह बच्चों ने आड़े-तिरछे अक्षरों में अपने बतरने से मेरा नाम लिख दिया था। जो मिट ही नहीं रहा था। अभी मैंने भीगा कपड़ा फेरकर मिटा दिया उसे। किरचों पर मैं सूखी उदासियाँ फेर रहा हूँ। अगर नाम ही मिट सकता है तो कुछ उजले दिनों की चुभती किरचें क्योंकर नहीं मिटेगी!

जाने क्यों बदलते दिनों के साथ इस बार मौसम का बदलना नहीं दिख रहा है। पिछले बरस तो इस वक्त दिनों के गालों पर खूब गुलाबीपन दिखता था। पक्की हुई बाजरी पर चिड़ियों के झुंड गाते रहते और बाजते रहते गोफण के फटीड़े। सांझ को रास्ते गठरियाँ लादे सिरों से भरे दिखते। इन दिनों बस नीली सांझ दिखती है। 

आज सांझ जाने क्यों मन हो रहा था तारे निहारने का पहाड़ी पर। या फिर लम्बे खुले रास्तों पर ड्राइव करने का। बहुत से दोस्त याद आए। मैंने एक दोस्त को फोन किया। मैंने कहा जाओ बंतळ करते हैं, उसने कहा व्यस्त हूँ। पिछले एक महीने से वो टाळ रहा है। नहीं तो मेरे जैसलमेर में पैर रखते हुए उसका फोन आता था आओ सुमेरसा बंतळ करते हैं। पीने के बाद हम दोनों दोस्तियों पर लम्बी-लम्बी बातें करते थे। पिछली दो-तीन मुलाकातों में वो अपना एक काम करवाने के लिए कह रहा था। मैंने कहा अपने बस की सिर्फ बंतळ है। उसके बाद से वो व्यस्त हो गया है।

मैं आँखें बंद करता हूँ तो जाने कौनसी दुनिया में पहुँच जाता हूँ। ऐसे लगता है कोठारिये से घी लेने को पड़वे में घुस रहा हूँ। खिड़की से आती धूप धूम के जादू में से एक बिल्ली का बच्चा नीचे उतर रहा है। मेरे हाथों में खूब सारे चीभड़िये हैं। बाजरे की रोटी और घी में धूपकारे प्याज खाने के बाद आळे में रखे टेप में से कैसेट निकाल कर वापिस घुमानी है।

आँखें खोलने पर आधा फिर से इस सूने रास्ते पर लौट आया हूँ। आधा वहीं हूँ। सिगरेट खत्म होकर बुझ चुकी है। ऐसे लग रहा है अभी भी कैसेट घुमा रहा हूँ और बज रहा है...
'बिच्छूड़े री झाड़ नी जाणे सर्पां सां अड़े
मानख्या थारो लावो लीजे, मिळे नी बारम्बार'

[Photo : Sumer Singh Rathore]