मुझे कविताएं बहुत पसंद है। और उससे भी ज्यादा पसंद है कविताओं को नए तरीके से पढ़ना। छपी हुई कविताओं को पढ़ने से घटती
हुई कविताएं महसूस करना ज्यादा सुखदायी होता है। या फिर पढ़ी जा चुकी कविताओं को
ही घटते हुए महसूस करना। जैसे मैं किसी निर्माणाधीन इमारत के पास चला जाता हूं और
महसूस करता हूं नरेश अग्रवाल की ये कविता-
"तुम हँसते हुए
काम पर बढ़ोगे
और देखते ही देखते
यह हँसी फैल जायेगी
ईंट-रेत और सीमेंट की बोरियों पर
जिस पर बैठकर
हंस रहा होगा तुम्हारा मालिक।"
मैं बैठ जाता हूं किसी छोटी सी
रेगिस्तानी पहाड़ी पर जाकर केदारनाथ अग्रवाल की इस कविता को समझने और महसूस करने
के लिए-
"जहाँ से चली मैं
जहाँ को गई मैं-
शहर, गाँव, बस्ती,
नदी, रेत, निर्जन,
हरे खेत, पोखर,
झुलाती चली मैं।
झुमाती चली मैं!
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूं"।
मैं ऐसे ही सुकून भरी कविताओं को महसूस
करने के लिए यात्राएं करने के सपने देखता हूं। कोई चुप्प सी यात्रा। बिना कुछ जाने
बिना कुछ किसी से पूछे। ऐसी यात्रा जो सिर्फ मेरी यात्रा हो। मेरे महसूस करने को
कोई महसूस न कर पाए ऐसी यात्रा।
पिछले दिनों में हिमाचल में था। मई-जून
के महिने में हिमाचल जाने का पहला कारण हर किसी का यही होता है वहाँ ठंडक होती है।
मैं समूद्र तल से 230 मीटर ऊंची तपती दोपहरों वाली जगह से ठंडी 2100 मीटर ऊंचाई
वाली जगह था। जैसलमेर से धर्मकोट तक कि यात्रा में पठानकोट तक 24 घंटे की यात्रा
उंघते हुए बीती। और फिर पठानकोट से निकलते-निकलते आँखें खुलनी शुरू हुई जो खोती गई
सुंदर कविताओं में। पतली-पतली सड़कें, दोनों तरफ
छोटे-छोटे गेंहूं के खेत, ऊंचे पहाड़। मैंने बहुत सारी कविताओं
को महसूस किया इस यात्रा में।
इस यात्रा में जो चीज सबसे अच्छी लगी
वो थे गेहूँ के खेत। छोटे-छोटे खेतों में लहराती गेहूं की बालियाँ ऐसे लग रही थीं
जैसे हवा के गीतों के साथ नाच रही हों। मैं धरमकोट में जिस कमरे में रुका हुआ था
उसके ठीक नीचे एक छोटा सा खेत था जिसकी बालियाँ हवा में लहराती रहती थी। मैं
सिगरेट पीने बाहर निकलता तो लम्बी देर तक लोहे की जाली पर हाथ टिकाए सुनहरी
बालियों को देखता रहता। सीढ़ीदार खेत बहुत छोटे-छोटे होते हैं। मैं रास्ते भर
सोचता रहा कि कितने प्यारे हैं ये खेत, मैं भी घर के पास एक ऐसा छोटा सा खेत बना
दूंगा जिसमें हमेशा कुछ उगता रहे।
मक्लिओडगंज के पास एक छोटी सी झील है,
डल झील। धर्मकोट से इस झील तक पैदल रास्ता बहुत सुंदर है। घने पेड़ों के बीच से
गुजरते हुए महसूस होता है जैसे आँखें बंद किए चल रहे हों। चारों तरफ शांति और पेड़ों
के बीच से आती झींगूरों की आवाजें। इस रास्ते के बीच में बताया गया कि बीच में एक
जगह पहाड़ी कुत्ते हैं ध्यान रखना। इन पेड़ों के बीच से गुजरते हुए जो महसूस हुआ
वह मंगलेश डबराल की इस कविता से समझा जा सकता है-
“कुछ देर बाद
शुरू होगी आवाज़ें
पहले एक कुत्ता भूँकेगा पास से
कुछ दूर हिनहिनाएगा घोड़ा
बस्ती के पार सियार बोलेंगे
बीच में कहीं होगा झींगुर का बोलना
पत्तों का हिलना
बीच में कहीं होगा
रास्ते पर किसी का अकेले चलना
इन सबसे बाहर
एक बाघ के डुकरने की आवाज़
होगी मेरे गाँव में।“
मैंने सुना था हिमाचल के
रास्ते डरावने हैं। मुझे इन रास्तों से गुजरते हुए एक बार भी डर नहीं लगा।
छोटे-छोटे रास्ते। उन रास्तों पर से चढ़ती-उतरती गाड़ियाँ, ढलानों पर पशुओं को
हांकती लड़कियां, रास्तों से बहुत नीचे बसे गाँव। पहाड़ों पर चढ़ते-उतरते हुए हर
बार मुझे आँखों देखी फिल्म याद आती रही। ‘मेरा सत्य वही होगा जिसे
मैं महसूस करूंगा’, ’कुछ अनुभव अभी भी बाकि हैं जो कि सिर्फ सपनों
में भोगे थे। जैसे कि ये सपना मुझे बार-बार आता था कि मैं हवा में तैर रहा हूं
पक्षी के जैसे।’
यहाँ के लोग भी मुझे
किसी कविता से लगे। चुपचाप पना काम करते हुए। आते-जाते हुए। शायद नई जगह के लोग
होने के कारण मुझे ऐसा लग रहा है। सड़क पर गुजरते इस बुजूर्ग की तस्वीर देखिए या
खच्चर ले जाते इस आदमी को या फिर इस राहगीर को। मुझे लगा कि से पूछूं कौनसे देश से
हो पर फिर मन ने कहा कि तुम बिना सवाल-जवाब कि यात्रा के हो तो पूछा नहीं।
दूर तक ऊंचे-ऊंचे हरे और
सफेद पहाड़। ऊपर की चोटियों पर गर्मियों में भी बर्फ दिख रही है। पेड़ों की लम्बी
कतारों पर सुबह-शाम सूरज डूबने और उगने के रंग उतरते हैं। किसी कोने में कोई अकेला
खड़ा पेड़। शाम को छोटी-छोटी चीजें जब सूरज पीछे चला जाता है तो निखरने लगती हैं।
पराशर झील धर्मशाला से
छह घंटे की दूरी पर है मंडी के पास। मुझे इस यात्रा में गेहूँ के खेतों के बाद अगर
कोई जगह सबसे अच्छी लगी तो वो थी इस झील के पास एक पहाड़ी। यहाँ पराशर ऋषि का
मंदिर है। इस झील के अंदर एक छोटा बगीचा है जो तैरता रहता है। मंदिर में स्थानीय
लोगों की भीड़ थी शायद यहाँ पर्यटक बहुत कम ही आते होंगे। मंदिर के आस पास लकड़ी
से बहुत ही सुंदर कमरे बने हुए हैं। झील देखने के बाद पास की एक पहाड़ी पर चढ़े।वहां
एक तार थी जिसके दूसरी तरफ छोटा सा कमरा दिख रहा था। वहाँ की हवा ऐसी थी कि बैठे
रहें बस हिलें ही नहीं। दो पहाड़ियों बीच से आती ठंडी हवा और आसपास दिखते सफेद
बर्फ से ढके पहाड़। भेड़ों का हांकता चरवाहा, पहाड़ों के बीच गोते खाते पंछी। मेरे
लिए ये जगह बिल्कूल वैसी ही थी कि ’कुछ अनुभव अभी भी बाकि हैं जो कि सिर्फ सपनों
में भोगे थे।’
मैं धरमकोट में रुका था।
इसे छोटा इजरायल भी कहते हैं। मकलिओडगंज से थोड़ा सा आगे शांत और छोटा सा गांव है।
यहाँ से कांगड़ा वैली और धौलाधर रेंज दिखते हैं। भीड़भाड़ से दूर शांति से रहने के
लिए धरमकोट बहुत ही प्यारी जगह है। मैं मिस्टिक लोटस होटल में ठहरा था और इस होटल
में ज्यादातर ऐसे लोग थे जो तीन-चार महिनों के लिए यहाँ रुकने आए थे। यहाँ रास्तों
में अकेले फिरते हुए ऐसे लगता है जैसे हर चीज कविता कह रही हों। पेड़ों के बीच से
रोशनी बिखेरता सूरज, पत्थर पर खिलता अकेला फूल, पास में बैठा उबासी लेता कुत्ता, स्कूल
में खेलते हुए थककर सीढ़ियों पर बैठे बच्चे।
मैं फिर से इन तस्वीरों
को देखता हूं तो ऐसे लगता है जैसे मेरे किसी प्रिय कवि की कविताएँ हैं जिन्हें मैं
बार-बार पढ़ता हूं। इन सामने घटती कविताओं में सुख है महसूस करने का पास बैठकर।
अजनबी रंगों का सजग चितेरा,वाह सुमेरा।
ReplyDeleteबहुत सुंदर फोटोग्राफी
ReplyDeleteक्या ये मुमकिन है कि
ReplyDeleteबारिशों से भीगे खत
बांचते बखत मैं चिल्लाता रहता
तुम्हारा नाम
शायद नही
- कमल