बस की खिड़की पर मौसम की
नमी जमती जाती है। सड़क पर कितना अंधेरा है और इस अंधेरे को चीरते बस भागी जाती है
मन के अंधेरे को धोते हुए। कैसे रात कटे और सुबह हो। उस शहर में सुबह जिससे मैंने
जी भरकर नफरत की और उसी शहर के लिए इतना इंतज़ार। डर जाता हूं कि बारिश हो रही
होगी तो? कैसे समझाऊंगा खुदको। पिछली बार कितना कोसा था बारिश को। उस दिन ज्यों-ज्यों
दिन गुजर रहा था ऐसे लगता जैसे सबकुछ डूब रहा हो। दीवार में दुबके कबूतर को घंटों
देखता रहा भीगते हुए। वो पंख फड़फड़ाकर उड़ता और बूँदें उसे वापिस उसी जगह बैठा
देती । और मौसम साफ होने पर भी घर से निकलना ना हुआ तो? मेरी बैचेनियों को कौन हाथ थाम ले जाएगा।
कैसे चहकता सा दौड़ रहा था
तीन महीनों से छूटी गलियों में दौड़ते हुए। सब चेहरों को देखने की ठाने मन इंतज़ार
कर रहा था आने वाली ट्रेनों का। ट्रेनें जो घाटों और रेगिस्तान के शहरों से, रोज
कोसने के बावजूद इस कभी ना छूटने वाले शहर को आती हैं। और इंतज़ार खत्म हुआ तो
सुबह आई संदेश ले कोई बुरा। चुप सन्न सा मन सब कुछ समेट कर भागना चाहने लगा। क्या
बोलूं। लेक्चर दे दूं? पर लेक्चर देने से नफरत है। खुद को कितना बुरा लगता है जब अपनी बात कहकर किसी
के चेहरे पर चुप्पी पढ़ना चाहो और वो शब्दों की चाशनी से शरीर को ऐंठ दे। चाही गई एक
चुप्पी को छोड़कर सब दे देने वालों पर कोफ़्त होती है। मैं चुप रहा। ऐसे मन
के साथ कोई सुनने के लिए कुछ नहीं कहता बस सामने वाला समझ रहा है इसके लिए कहता है। मन भाग रहा पर
पाँव बँधे हैं। मोह बांध रहा और मोहब्बत बैचेन कर रही। हरे रास्तों पर खुद को
भिगोकर बैचेनियों को डुबो देने की हद तक भीगता रहा खुद को हँसाते हुए।
सुबह बस की खिड़की पर धुंध
छंटी तो बौछारों में भीगते हुए हँस रहा था। दिन कैसे कटता। भाग गया दूर किसी दमक में।
बैचेनियाँ काट लेने भर के लिए। कोई फिर पकड़ कर ले आए उन रास्तों पर जिनसे मोहब्बत
हो गई। वो जगहें जैसे दरवाज़े बंद कर रही हों। और फिर शाम आती है तो लगता है जैसे
खुद के होने को कहीं छोड़ दिया। सिर्फ चेहरा है और आवाज़। कोई कुछ भी नहीं। ज़ी
करता है आँखें बंद करके सुनता जाऊं। परदा जो दिखा रहा है दिमाग उसके साथ-साथ
दृश्यों में घुलकर कहीं और चला जाता है।
तीन बरस पहले किसी शाम सपना
देखते हुए कैसे एक नाम अटक गया था। वो नाम जो जन्म देने वाली मिट्टी में घुला हुआ
था। शाम भर तस्वीरें देखता रहा। नज़दीक आने के रास्तों पर चलता गया। और रास्ते
छोटे होते गए। चाह की पगडंडियों पर बाधाएँ आती गईं और नजदीकियों के रास्ते पास आते
गए। इतने पास आते गए कि खुद के ना होने पर भी होंठ नाम लेते रहते। इतनी नज़दीकियाँ
कि जिस शहर को जी भर कोसा वो शहर प्यार हो गया। और फिर लगता कि मुझे ही कोई मुझसे
छीन रहा हो। भागते पेड़ों के बीच जैसे मैं बिखरकर इधर-उधर गिर रहा होऊं। कितने नाम
हैं जाने-पहचाने कि जिन के साथ दिन सुहाने और रातें रंगीन होती हैं। डर लग रहा है
सबसे। जवाब देते नहीं बनता कि मैं हूं इस शहर में।
बस पड़े रहना चाहता हूं उन
दो चेहरों के पास जो गोद में खेलते हुए चेहरे बने हैं। वो कुछ भी नहीं पूछते इस
सवाल के अलावा कि आप भूखे तो नहीं। मैं हँस देता हूँ जवाब देते हुए, मुझे कब
भूख लगती है। रात होते-होते बैचेनियाँ पाँवों में नाचने लगती है। मैं स्टेशन
मास्टर के कमरे के आगे रखी कुर्सी पर बैठे सिगरेट के धूँए के पटरियों की तरफ जाते
हुए देखता रहता हूं। फाटक बंद होता है तो पैदल चलने वाले थोड़ा सा झुकते हैं और निकल जाते
हैं, जो सवार होते हैं इंतज़ार करते रहते हैं रास्ता खुलने का। खत्म हो चुकी
सिगरेट को देखकर दूसरी सिगरेट जेब से बाहर आ जाती है। आस या पास कुछ भी नहीं जो
जला दे इसे। नीचे पड़ा सिगरेट चमकता है और झुककर दूसरी सिगरेट को चूम लेता है।
महीनों पहले कि वो रात जाने कहां से उतर आती है पटरियों पर झूलती हुई। पिगलती बरफ के
बीच नशे में झूमते शरीर ने चिपके होठों को दूर करते हुए चाह की थी कि ये भारीपन ना
होता तो गले पर प्यारा नीला रंग उभर आता। नशे में ही उसने एक नाम लिया कि ये नीलापन उस
पर कितना फबेगा।
पागल हो गया था मन उस रात।
दूर अँधेरे में पिघलते हुए पहाड़ को देखते हुए वो रातभर बालकनी पर सिगरेटें झाड़ता
रहा। ये नाम क्यों लिया उसने, क्या माथे पर लिखा रह जाता है ज़ेहन में अटका रह गया
नाम। नाम ने उतार दिया सारा नशा जो नशे को को काटने के लिए नसों में घुला था। खुद
को बचाने के लिए लकीर खींच दी उस रात और भाग आया था फिर किसी के पास आने को
नकारकर।
बंद दुकान की सीढ़ीयों के
नीचे से सिर निकालकर कुत्ता अजीब सा लुक दे रहा है। सड़क पर ठहरे रह गए पानी में
रोडलाइट ऐसे चमक रही है जैसे पूरा चाँद हो। सुनहरी रेखा तक खत्म हो चुकी सिगरेट ने
होंठों को जला दिया। पानी में झांकते चाँद के छलावे पर सिगरेट फेंकी तो छप्प की
आवाज के साथ चाँद गड्डमड्ड हो गया। बुझा हुआ सिगरेट का टुकड़ा पानी पर तैर रहा है।
मन नहीं समझता समझाने पर भी। ऐसे कैसे लौटा जा सकता है। मैं सोचता हूं कि मेरा
होना जरूरी है।
कानों में चित्रा सिंह
घुलती जाती हैं बैचेनियों में तैरते हुए-
उन के खत की आरज़ू है उन के आमद का ख़याल
किस क़दर फैला हुआ है कारोबार-ए-इंतज़ार
वाह सुमेरा
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