आज नीली शाम आई है दिनों बाद। पूरे दिन के अंधेरे के बाद छत से लिपटती छायाओं के साथ हर ओर नीलापन उतर रहा है। बरगद के पत्तों में दिन की ही तरह कोई हरकत नहीं है। धूप लौटते कौओं के साथ जाने कहां उड़े जा रही है। ऐसे लगता है जैसे सबकुछ रुक गया हो। सूखे पत्ते चुपचाप देख रहे हैं सबकुछ होना।
यूँ भी कहीं कोई ठहर जाता होगा क्या? अपने दुखों की लकीरें खुद की खींची होती हैं और दोष जाने किसी कूची पर जाकर ठहर जाता है। सबके अपने-अपने सवाल हैं निस्तेज होती आँखों से, क्या इन दुखों का कारण कोई धुआँ है या फिर किसी ने छीन ली हैं ऊंगलियों की हरकतें। क्या बीमार हूं मैं? लगता तो नहीं। पर बीमार ही तो हूं, बहुत बीमार। मैं क्यों उड़ जाता हूं रोज उन रास्तों पर। ये जानते हुअ कि कोई भी शक्ति किसी को कुछ भी नहीं दे सकती मैं क्यों घंटों औलिया का नाम जपता रहता हूं। मुझे लगता है हम सब अपने औलिया खुद हैं और अपने सुख-दुख गले में बांधे घूमते रहते हैं। इतना आसान होता है क्या होना ना होना।
हर बार सोचता हूं ठहरी हुई चीजों में कुछ हरकत होगी पर चीजें और जड़ होती जाती हैं। आदमी भागकर कहां तक जा सकता है। क्या कोई जीते जी ओझल हो सकता है। तब जब किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता होने या ना होने से।
मुझे उस आदमी की याद आई आज दोपहर जिसने कहा था कि ''तुम उम्मीद हो अंधेरे से बाहर निकलो। तुम्हें सामाजिक होना चाहिए। जब दुखों से घिरे होते हैं तो तुम्हें पढ़कर जी जाते हैं। तुम्हारे अंदर कुछ भी करने की ताकत है। ऐसे मन की कोई नहीं कर पाता है तुम्हारी तरह। तुम्हें और लिखना चाहिए बिना डरे ताकि हम पढ़ते हुए अपने दुखों के झेल सकें।'' मैं चेहरे पर मुस्कराहट तैर गई थी। घुमा फिरा के कोई ये बात रोजाना कह जाता है। पर मैं कैसे कहूं कि मैं खत्म हो चुका हूं। हर रोज जाने कौनसी डोरी है जो मेरे गले में कसती जाती है। डोरी में ढ़ील आती है तो मैं जी उठता हूं कई दिनों के लिए लेकिन फिर किसी रोज डोरी कसती है और मैं तड़प उठता हूं।
एक दोस्त ने रहा था ''किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता, हमें आगे बढ़ जाना चाहिए। खुद को खिलौना बनाकर यूं किसी को सौंपना निरी मूर्खता है।'' काश कि आगे बढ़ जाना कहने जितना ही आसान होता। हर कोशिश के बाद खुद को वहीं फिर से वहीं खड़ा देखता हूं। जैसे सब कुछ एक ही बिंदू पर सिमटकर रह गया है।
मैं वहां से भाग आया था कि लोगों, जानवरों और मिट्टी में घुलकर सबकुछ भूल जाऊंगा। पर आँखें उन्हीं चेहरों को आगे रख देती हैं रोज सुबह। कलाइयाँ कसमसाकर टूटती सी लगती हैं। रातभर के बुरे सपने जैसे हर सुबह सच बनकर सामने आ खड़े होते हैं।
ऐसे क्यूं अचानक सारे रंग उड़ जाते हैं। सबकुछ अंधेरे में डूबता हुआ सा लगता है। क्यूं कोई जीवन में इस तरह से आता है। जो न साथ होना चाहता है ना ही जाना।
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