Wednesday 21 February 2018

दीवारों में उगते होंगे जरबेरा के फूल!

वह दीवारों को खुरचता और उनमें जरबेरा के फूलों के बीज चिपका देता। उसे लगता है दीवारों में भी उग आते होंगे फूल। उसे ये भी लगता कि शहर में लोगों से ज्यादा जान पथरों और दीवारों में होती है। किसी भी जगह पर उसने सबसे ज्यादा प्रेम रास्तों से किया। उन रास्तों से जिनपर चलते हुए उसे खुद के होने का एहसास हुआ।
वो गर्मियों के जाने के दिन होते थे। गाँव हरे हो जाते और निगाहें आसमान में उग आती। उन दिनों एकाध हल्की बारिशें हो चुकी होतीं। खंडहरों की कंकरीली छतें हरी हो जाती। मोगरे की हरी पत्तियों पर तिर आती थीं बून्दें।
ये वही दिन थे जब वो सामाजिक की किताब में सरस सलिल छिपाकर पढ़ने लगा था। और उसमें पढ़ी रंगीन कहानियों के हिस्से वह उस दो चोटियों वाली लड़की को खंडहरों में सुनाया करता। उसको कहानियां सुनना बहुत पसंद था। सुनते हुए वह खिलखिलाकर हंसने लगती थी। वह उन खिलाखिलाते होंठो को देखने लगता और चुप हो जाता।
उसने कहा ‘कल मैं तुम्हें एक किताब लाकर दूंगा, तुम छिपकर पढ़ना उसे’। लेकिन वह किसी भी कोर्स की किताब में छिपाकर दूसरी किताब नहीं पढ़ सकती थी। लड़के पकड़े जाते थे तो चेतावनियों भरी डांट खाकर बच जाते थे लेकिन लड़कियां पिट जाती और अगले दिन से उनका स्कूल जाना भी बंद हो जाता था।
जब दोपहर को खिड़कियों से छनकर आती धूप में खिलकर उनकी गर्दनों के निशान नीले हो जाते तो दोनों छत्त पर भाग जाते और मोगरे की जड़ें खोदकर उन जड़ों में उगे गेहूं जितने छोटे-छोटे दाने खोजते।
उसे कोई पूछता है कि गांवों में मोहब्बत कैसे होती है। वह सोचने लगता मोहब्बत कैसे होती होगी? वहां आक की झाड़ियां होती हैं और सीलन से भरी खंडहरों की दीवारें।
उन दिनों उसे लगता था कि हम जब मोहब्बत में होते हैं, कहीं भी कुछ भी उगा सकते हैं। और अब वह रात को नींद में भयावह सपने देखते हुए चिल्लाता है कि ‘संघर्ष हमारा नारा है’।


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