Tuesday 20 February 2018

एंटीना और नीले निशान

तब भी मार्च आता था। अखबारों पर जार्ज बुश की बड़ी-बड़ी तस्वीरों के साथ इराक का नाम छपा रहता था। बच्चे रविवार को या तो किताबों में घुसे रहते या खंडहरों में नाक पर हाथ रखे चमगादड़ों को ढूंढ़ते थे। वह चुपचाप इंतज़ार करता था बारह बज जाने का। वह टीवी को झांकता रहता था। गाँव में कुछ ही घरों में टीवी थी। पर रविवार को टीवी देखने वाला सिर्फ वो होता था।
उन दिनों वह नई-नई दुल्हन बन कर आई थी। सब औरतें दोपहरों में ऊंघ रही होती या कहीं चौकियों पर मखौल कर रही होती। वह जब भी कमरे में आती मुस्करा देती और आलों में से कुछ ढूंढ़कर चली जाती। उस दोपहर जाने कौनसी फिल्म आ रही थी। तेज हवा से एंटीना घूम गया था।
‘आप टीवी देखते रहिए मैं एंटीना ठीक करता हूं, सही से आ जाये तो खिड़की से बता देना।’
‘ठीक है। पीछे के तरफ जो पत्थर रखे हैं उन्हें एंटीना से लगा देना फिर वो हवा से हिलेगा नहीं।’
सेट करके वह वापिस से चारपाई पर आकर बैठ गया। वो कुछ सी रही थीं और वहीं बैठकर टीवी देखने लगीं। जाने क्या बातें कर रही थीं। उन दिनों पत्रिका के साथ रविवारिय अंक आता था जिसमें कहानियां होती थीं। एड आई तो वह उस पन्ने को टटोलने लगा। उन्होंने बालों में हाथ फेर कर कहा ‘तुम इतने चुप क्यों रहते हो।’ उसने देखा और हंसने लगा। ‘मुझे पढ़ना नहीं आता, ये इसमें क्या लिखा है। वह कहानी सुनाने लगा। उन्होंने खिड़की बंद करते हुए कहा ‘कितनी धूल आती है’। 
‘देखो तो मेरी पीठ पर क्या चुभ रहा है’। 
‘कुछ भी नहीं है’
‘वहां डोरी के नीचे देखो’
उसने डोरी के नीचे उंघली फिराई। उसे स्कूल के शैतान बच्चे याद आ गए जो मई तक का महीना गिनते हुए उंगली कर देते थे। डोरी में पतली सी भुरट की सिळी लगी थी। निकालते हुए उसके मुँह से जाने क्यों जनवरी, फरवरी निकलने लगा। मई पर आते-आते उन्होंने छात्ती में भींच लिया। ढीली सी टीशर्ट खिसक कर उसकी बाहों में झूल गई। उसने दांत छाती के नीचे गड़ा दिये।
‘कितने भोले बच्चे बनकर रहते हो। क्या कर रहे हो ये।’
उसने ओढ़ण खींचकर चेहरा छुपा लिया।
हवा खिड़कियों के सुराखों से टकराकर आलों में बिछे अखबारों को बिखेर रही थी। उसने टीशर्ट ठीक किया और भाग गया। गायों की रखवाली का वक्त था ये।
बच्चों की गर्दनों पर मंड गए निशानों पर किसी की नज़र नहीं जाती थी। वह पीलू खाने ऊंची डालों पर लटकता था या चमगादड़ों को पकड़ते हुए खंडहरों में कई बार घिसट जाता था। उस नीले निशान पर किसी ने शक नहीं किया।
अब भी मार्च आने वाला है। अखबार नहीं देखा उसने जाने कितने दिनों से। उसे रोते हुए देखकर किसी ने सलाह दी। ‘तुमने कभी आँखों में आँखें डालकर कहा है’
‘नहीं, डर लगता है मुझे’
वह कोई खास दिन था। उसने सोच लिया था कि वो आज आँखों में देखेगा। वह नहीं देख पाया। नज़र फेरकर आसमान देखते हुए वह बोलता रहा और फिर रोने लगा। पता नहीं कब वह किसी के सामने ऐसे रोया था। 
‘मैंने कह दिया’
‘उसने क्या कहा’
‘वही जो हमेशा कहती है।’ रोती सी आवाज़ में उसने कहा ‘ऐसा क्यूं होता है मेरे साथ’
‘तुम रोमांटिक नहीं हो’
वह हंसने लगी। और खामोश ही गई। यह सबकुछ शांत होने का एक छोटा सा पल था।
वह चेहरा देखती रही बोली ‘केन वी किस्स’
‘नो’ उसने कहा ‘वॉव, कंसेट! शुक्रिया। और वो हंसने लगा।
‘इस मोहब्बत ने मुझे कितना ‘पवित्र’ बना दिया है।’
‘तो फिर क्यों नहीं चले जाते हो तुम टूर पर?’ उसने आँख मारते हुए कहा। दोनों हंसने लगे।
और सारी कहानियां उसकी आँखों के आगे फिरने लगी। जैसे किसी ने एंटीना घुमा दिया और साफ सिग्नल आने लगे थे। स्क्रीन पर नीले निशानों से भरी गर्दन और कंधे चमक रहे थे। बचपन में कोई ऐसा हुआ होगा क्या।
वह डरने लगा था लोगों से, रोशनी से। 
वह चिलाने लगा खाली कमरे में। ‘मैं कहां जाऊंगा अगर हार गया तो। कोई घर चला जायेगा, कोई शहर चला जायेगा। मैं भी चला जाऊंगा कहीं ना कहीं। कोई तो जगह होगी जहां मैं जा सकूंगा। खो जाऊंगा मैं एक दिन। दूर कहीं, बहुत दूर।’
वह बोलती रही। समझाती रही। उसे सिर्फ इतना सुनाई दिया ‘यह भी एक फेज होता है, उम्र का फेज। निकल जाता है तो कुछ भी याद नहीं रहता’।
वह उठकर चला आया था। यह भी एक फेज है जिसे सिर्फ खाली कमरे समझ सकते हैं।




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